अगर आपका बच्चा विद्यालय जाकर नाच-गाकर आ जाए याँ केवल स्कूल की परिक्रमा कर आए याँ
अध्यापक को माथा टेक कर घर लौट आए, पुस्तक खोले नहीं और आप उससे पूछें कि बेटा क्या सीख कर आए , तो वह आपको क्या उत्तर देगा ?
और यही हम दुनिया में अध्यात्म में करते हैं । बजाए इसके कि शास्त्रों का अध्ययन करें ।
हम ढोल नगाडे और ज़ोरों से कान फाड देने वाले स्पीकर व डेक और फिल्मी संगीत बजाते हैं और इस ही को मालिके से मिलने की राह समझ लेते
हैं ।
बच्चों से अपेक्षा करते हैं कि वे अध्ययन करें, पर हम खुद पर यह बातें लागू नहीं करते।
नाच-गानों में समय गँवा कर, आधी रात तक ध्वनी प्रदूषण फैलाते हैं ।
यानी कि अब परमार्थ का स्तर इतना डिग
चुका है ! ??
पर्मात्मा रूपी सरकार तो दूर, हम अपने देश की सरकार, सर्वोच्च न्यायालय
का भी कहना नहीं
मानते । क्या हम रात्री १० बजे उपरांत ध्वनी प्रदूषण बंद करते हैं ??
क्या यह बेअर्थ कार्यों से हम जीवन-मृत्यु का भेद खोल
पाएंगे और
उस मालिक से मिलाप हासिल कर पाएंगें जिसने समस्त भ्रम्हांड को जन्म दिया है ?
क्या इन बाहरी कर्मों से हम जड़-चेतन
की गाँठ खोल पाएँगे ?
कृपया विचार करें । (महाराज श्री कृष्ण ने कहा है “विचार श्रेष्ठ है ।” )
यूँ आँखें मीच कर
किसीके भी पीछे ना लग जाएँ ।
-ऋषि बब्बर , १६ अक्टूबर २०१८, मुम्बई , भारत
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